Faiz Ahmed Faiz – Ab bajmei sukhan suhabte sokhatgan hai
अब बज़्मे-सुख़न सुहबते-सोख़्तगाँ है
अब बज़्मे-सुख़न सुहबते-सोख़्तगाँ है
अब हल्कः-ए-मय तायफ़ः-ए-बेतलबाँ है
हम सहल तलब कौन से फ़रहाद थे, लेकिन
अब शह्र में तेरे कोई हम-सा भी कहाँ है
घर रहिए तो वीरानी-ए-दिल खाने को आवे
रह चलिए तो हर गाम पे ग़ोग़ा-ए-सगाँ है
है साहबे-इंसाफ़ ख़ुद इंसाफ़ का तालिब
मुहर उसकी है, मीज़ान ब-दस्ते-दिगराँ है
अरबाबे-जुनूँ यह-ब-दिगर दस्तो-गरेबाँ
और जैशे-हवस दूर से नज्ज़ारः कुना है
(सुहबते-सोख़्तगाँ=जले हुओं का साथ, हल्कः-ए-
मय=मदिरा का क्षेत्र, तायफ़ः-ए-बेतलबाँ=उन
लोगों की मण्डली, जिन्हें कुछ नहीं चाहिए, ग़ोग़ा-ए-
सगाँ=कुत्तों का शोर, मीज़ान=तराज़ू, ब-दस्ते-दिगराँ=
दूसरों के हाथ में, अरबाबे-जुनूँ=उन्मादवाले, यह-ब-
दिगर=एक-दूसरे से, दस्तो-गरेबाँ=गरेबाँ में हाथ डाले
हुए,लड़ते हुए, जैशे-हवस=कामनाओं की फ़ौज)
मय=मदिरा का क्षेत्र, तायफ़ः-ए-बेतलबाँ=उन
लोगों की मण्डली, जिन्हें कुछ नहीं चाहिए, ग़ोग़ा-ए-
सगाँ=कुत्तों का शोर, मीज़ान=तराज़ू, ब-दस्ते-दिगराँ=
दूसरों के हाथ में, अरबाबे-जुनूँ=उन्मादवाले, यह-ब-
दिगर=एक-दूसरे से, दस्तो-गरेबाँ=गरेबाँ में हाथ डाले
हुए,लड़ते हुए, जैशे-हवस=कामनाओं की फ़ौज)