Gulzar – Painting
पेन्टिंग-१
खड़खड़ाता हुआ निकला है उफ़ुक से सूरज,
जैसे कीचड़ में फँसा पहिया धकेला हो किसी ने
चिब्बे टिब्बे से किनारों पे नज़र आते हैं।
रोज़ सा गोल नहीं है!
उधरे-उधरे से उजाले हैं बदन पर
उर चेहरे पे खरोचों के निशाँ हैं!!
पेन्टिंग-२
रात जब गहरी नींद में थी कल
एक ताज़ा सफ़ेद कैनवस पर,
आतिशी सुर्ख रंगों से,
मैंने रौशन किया था इक सूरज!
सुबह तक जल चुका था वह कैनवस,
राख बिखरी हुई थी कमरे में!!
पेन्टिंग-३
“जोरहट” में, एक दफ़ा
दूर उफ़ुक के हलके हलके कोहरे में
‘हेमन बरुआ’ के चाय बागान के पीछे,
चान्द कुछ ऐसे रखा थ,– —
जैसे चीनी मिट्टी की,चमकीली ‘कैटल’ राखी हो!!