Ramdhari Singh Dinkar – Avkaash vaali sabhyta
अवकाश वाली सभ्यता मैं रात के अँधेरे में सिताओं की ओर देखता हूँ जिन की रोशनी भविष्य की ओर जाती
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अवकाश वाली सभ्यता मैं रात के अँधेरे में सिताओं की ओर देखता हूँ जिन की रोशनी भविष्य की ओर जाती
Read Moreशोक की संतान हृदय छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा।
Read Moreभगवान के डाकिए पक्षी और बादल, ये भगवान के डाकिए हैं जो एक महादेश से दूसरें महादेश को जाते हैं।
Read Moreजमीन दो, जमीन दो सुरम्य शान्ति के लिए, जमीन दो, जमीन दो, महान् क्रान्ति के लिए, जमीन दो, जमीन दो
Read Moreनिर्वासित बार-बार लिपटा चरणों से, बार-बार नीचे आया; चूक न अपनी ज्ञात हमें, है दण्ड कि निर्वासन पाया । (1)
Read Moreआगोचर का आमंत्रण आदि प्रेम की मैं ज्वाला, उतरी गाती यों प्रात-किरण, जो प्रेमी हो, आगे बढ़, मुझ अनल-विशिख का
Read Moreएक भारतीय आत्मा के प्रति (कवि की साठवीं वर्ष गांठ पर) रेशम के डोरे नहीं, तूल के तार नहीं, तुमने
Read Moreभारत का आगमन कुछ आये शर-चाप उठाये राग प्रलय का गाते, मानवता पर पड़े हुए पर्वत की धूल उड़ाते ।
Read Moreचुम्बन सब तुमने कह दिया, मगर, यह चुम्बन क्या है? “प्यार तुम्हें करता हूँ मैं”, इसमें जो “मैं” है, चुम्बन
Read Moreप्रेम (१) प्रेम की आकुलता का भेद छिपा रहता भीतर मन में, काम तब भी अपना मधु वेद सदा अंकित
Read Moreराजर्षि अभिनन्दन (स्वर्गीय राजर्षि पुरषोत्तमदास टंडन के अभिनन्दन में) जन-हित निज सर्वस्व दान कर तुम तो हुए अशेष; क्या देकर
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