Javed Akhtar – Humsaaye ke naam
कुछ तुमने कहा
कुछ मैंने कहा
और बढ़ते-बढ़ते बात बढ़ी
दिल ऊब गया
दिन डूब गया
और गहरी-काली रात बढ़ी
तुम अपने घर
मैं अपने घर
सारे दरवाज़े बंद किए
बैठे हैं कड़वे घूंट पिए
ओढ़े हैं ग़ुस्से की चादर
कुछ तुम सोचो
कुछ मैं सोचूँ
क्यों ऊँची हैं ये दीवारें
कब तक हम इन पर सर मारें
कब तक ये अँधेरे रहने हैं
कीना के ये घेरे रहने हैं
चलो अपने दरवाज़े खोलें
और घर से बाहर आएं हम
दिल ठहरे जहाँ हैं बरसों से
वो इक नुक्कड़ है नफ़रत का
कब तक इस नुक्कड़ पर ठहरें
अब उसके आगे जाएं हम
बस थोड़ी दूर इक दरिया है
जहाँ एक उजाला बहता है
वाँ लहरों-लहरों हैं किरनें
और किरनों-किरनों हैं लहरें
उन किरनां में
उन लहरों में
हम दिल को ख़ूब नहाने दें
सीनों में जो इक पत्थर है
उस पत्थर को घुल जाने दें
दिल के इक कोने में भी छुपी
गर थोड़ी-सी भी नफ़रत है
उस नफ़रत को धुल जाने दें
दोनों की तरफ़ से जिस दिन भी
इज़्हार नदामत का होगा
तब जश्न मुहब्बत का होगा।