Faiz Ahmed Faiz – Khwaab basera
ख़्वाब बसेरा
इस वकत तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अंधेरा न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का इक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आ के करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर, न इक महर न इक रबत, न रिशता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा
माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़कत एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने को अभी उमर पड़ी है
मेयो असपताल, लाहौर
४ मारच, १९८२
(रबत=सम्बन्ध, फ़क्त=केवल)